नैनीताल। नीरज कुमार जोशी

आज यानि 22 अगस्त को रक्षाबंधन का पर्व मनाया जा रहा है। प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को भाई—बहन के रिश्तों को मजबूती देता यह पवित्र त्योहार मनाया जाता है। इस दिन बहन भाई की कलाई में विश्वास की डोर बांधकर रक्षा का वचन लेती है और भाई की खुसहाली की कामना करती है। आइये जानें इस त्योहार को मनाने की शुरुआत कैसे हुई। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि जगत जननी जगदम्बिका मां लक्ष्मी ने सबसे पहले राजा बलि को भाई मानकर रक्षा धागा बांधा था। तभी से इस पवित्र त्योहार की शुरुआत हुई। समय के साथ मजबूत होती विश्वास की डोर के प्रतीक रक्षाबंधन पर्व पर आप सभी सुधी पाठकों को हार्दिक बधाई। रक्षाबंधन पर आधारित पौराणिक कथा को आप के बीच प्रस्तुत करने का प्रयास है। मानव स्वभाववश ऋुटियां संभव है। उम्मीद है आपको लेख पसंद आएगा। आपके अमूल्य सुझाव सादर आमंत्रित हैं—
राजा बलि की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। दान-पुण्य करने में वह कभी पीछे नहीं रहता था। आसुरी स्वभाव होने के कारण वह हमेशा देवताविरोधी कार्यों में संलग्न रहता था। धार्मिक कथाओं के अनुसार प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बलि ने विश्वविजय की कामना से एक समय असुरराज बलि ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ के चलते उसकी प्रसिद्धि और यश चारों दिशाओं में फैलने लगा। अग्निहोत्र सहित उसने 98 यज्ञ संपन्न कराए थे और इस तरह उसके राज्य और शक्ति का विस्तार होता गया, तब उसने इंद्र के राज्य पर चढ़ाई करने की सोची। इस तरह राजा बलि ने 99वें यज्ञ की घोषणा की और सभी राज्यों और नगरवासियों को निमंत्रण भेजा। राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए, तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया।
तब लेना पड़ा श्रीहरि को वामन अवतार : वामन ॠषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वे आदित्यों में 12वें थे। ऐसी मान्यता है कि वे इन्द्र के छोटे भाई थे और राजा बलि के सौतेले भाई। विष्णु ने इसी रूप में जन्म लिया था। देवता बलि को नष्ट करने में असमर्थ थे। बलि ने देवताओं को यज्ञ करने जितनी भूमि ही दे रखी थी। तब सभी देवता विष्णु की शरण में गए। विष्णु ने कहा कि बलि भी उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे। तब विष्णु भगवान ने अदिति के यहां जन्म लिया और एक दिन जब बलि यज्ञ की योजना बना रहा था तब वे ब्राह्मण-वेश में वहां दान लेने पहुंच गए। उन्हें देखते ही शुक्राचार्य उन्हें पहचान गए। शुक्राचार्य ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे विष्णु हैं। और बगैर राय मशवरा के उन्हें कोई भी वस्तु दान देना उचित नहीं रहेाग। लेकिन बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी और वामन के दान मांगने पर उनको तीन पग भूमि दान में देने का वचन दे दिया। तभी ब्राह्मण वेशधारी वामन भगवान अपने विराट रुप में प्रकट हुए। भगवान ने एक पग में भूमंडल नाप लिया। दूसरे में स्वर्ग और तीसरे के लिए बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई, मैं क्या करूं भगवान? अब तो मेरा सिर ही बचा है। इस प्रकार विष्णु ने उसके सिर पर तीसरा पैर रख दिया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उसे पाताल में रसातल का कलियुग के अंत तक राजा बने रहने का वरदान दे दिया। तब बलि ने विष्णु से एक और वरदान मांगा। राजा बलि ने कहा कि भगवान यदि आप मुझे पाताल लोक का राजा बना ही रहे हैं तो मुझे वरदान दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं के प्रपंचों से बचा रहे और आप मेरे साथ रहें। अपने भक्त के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने राजा बलि के निवास में रहने का संकल्प ले लिया। भगवान विष्णु के राजा के साथ रहने की वजह से मां लक्ष्मी चिंतित हो गईं और नारद जी को सारी बात बताई। तब नारद जी ने माता लक्ष्मी को भगवान विष्णु को वापस लाने का उपाय बताया। नारद जी ने माता लक्ष्मी से कहा कि आप राजा बलि को अपना भाई बना लिजिए और भगवान विष्णु को मांग लिजिए। नारद जी की बात सुनकर माता लक्ष्मी राजा बलि के पास भेष बदलकर गईं और उनके पास जाते ही रोने लगीं। राजा बलि ने जब माता लक्ष्मी से रोने का कारण पूछा तो मां ने कहा कि उनका कोई भाई नहीं है इसलिए वो रो रही हैं। राजा ने मां की बात सुनकर कहा कि आज से मैं आपका भाई हूं। माता लक्ष्मी ने तब राजा बलि को राखी बांधी और उनके भगवान विष्णु को मांग लिया है। ऐसा माना जाता है कि तभी से भाई-बहन का यह पावन पर्व मनाया जाता है।