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लोकगीत उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा है। आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में लोकगीतों का बहुत बड़ा भंडार उपलब्ध है, जिनका उपयोग हम चेतना के विकास और वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। यह बात वरिष्ठ साहित्यकार डा. नंदकिशोर हटवाल ने कुमाऊं विवि के रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ की ओर से आयोजित गढ़वाली लोकसाहित्य का संग्रहण, संकलन और लिप्यंकन विषय पर आयोजित वेबीनार में कही।
डा. हटवाल ने कहा कि लोकभाषा, लोकसाहित्य एवं उसके भंडार को भरने के लिए लोकगीतों का संकलन और संग्रहण करना बेहद जरुरी है। ये हमारी विरासत हैं इन्हें समय रहते संरक्षित करने के प्रयास करने चाहिए। इसके लिए व्यक्तिगत प्रयासों के साथ ही सामुहिक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। लोकगीतों के संग्रहण पद्धतियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अब तक प्राय: लोकगीतों को पुस्तक रूप में संग्रहित करने का कार्य किया गया है। वर्तमान में आडियो-वीडियो माध्यम से भी लोकगीतों को संग्रहित करने का कार्य चल रहा है। इंटरनेट आधुनिक समय में लोकगीतों या अन्य लोक विधाओं को संरक्षित करने का सबसे सशक्त माध्यम है। डिजिटल माध्यम द्वारा ई-बुक्स या ई-लाइब्रेरी में लोकगीत कोश बनाकर हम पारंपरिक लोकगीतों का संग्रहण कर सकते हैं।
गढ़वाली लोकसाहित्य के अध्येता डाॅ. हटवाल ने कहा कि लोकगीत के संग्रहण के समय उससे जुड़ी सूचनाएँ भी एकत्र की जानी चाहिए। लोकगीत की प्राप्ति का समय, डायरी में नोट करने अथवा रिकार्डिंग की तिथि, प्राप्ति स्थान, अवसर, लोकगीत प्रदानकर्ता का पूर्ण विवरण आदि का उल्लेख यदि लोकगीत के संकलन के साथ किया जाए तो लोकगीत, उसके प्रारूप को समझने और विश्लेषण करने में मदद मिलती है। लोकगीत संग्रह करते समय लोकगीत के साथ संग्रहकर्ता की समझ भी घुल-मिल जाती है। यह जरूरी नहीं कि जिस लोकगीत को हम पढ़ या सुन रहे हैं, वह हुबहू हमारे लोक में प्रचलित हो। वह उसका लिप्यांकित या छपा हुआ रूप हो सकता है।
कार्यक्रम के दूसरे चरण में डा.हटवाल ने अपने कहानी संग्रह ‘भयमुक्त बुग्याल और अन्य कहानियाँ’ से चर्चित कहानी ‘जै हिंद’ का पाठ किया। पहाड़ी लोकजीवन पर आधारित इस मर्मस्पर्शी कहानी में उन्होंने पहाड़ के सीधे-सरल लोगों का अपरिचित लोगों से अटूट सम्बन्ध जोड़ लेने की कथा का ताना-बाना बुना है। प्रकृति और लोकजीवन के सुरम्य चित्र पाठक को सैन्य पृष्ठभूमि पर आधारित इस कहानी से बाँधे रहते हैं। कार्यक्रम में महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक प्रो. शिरीष कुमार मौर्य, शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत , वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत बेंजवाल, रमेश पंत, जहूर आलम, महेश पुनेठा, डाॅ. सुवर्ण रावत, कमला पंत, डाॅ. कमलेश कुमार मिश्रा, शिव प्रकाश त्रिपाठी, शीला पुनेठा, खेमकरण सोमन, भावना उपाध्याय, गोविंद नागिला, डाॅ. गिरीश पाण्डेय ‘प्रतीक’, गजेन्द्र नौटियाल, डाॅ. अंजू सक्सेना, गीता नौटियाल, राजेन्द्र जोशी, तारा महरा, पल्लवी जोशी, राजनंदन शर्मा ‘विमलेंदु’, बल्लभ यमुनेश्वरी, अभय कुमार गुप्ता, मीनू जोशी, रीना पंत, सुकृति द्विवेदी, प्रदीप श्रीवास्तव, मेधा नैलवाल, सुधांशु श्रीवास्तव, अनुजा शुक्ला, रेखा जोशी आदि मौजूद रहे।
उत्तराखण्ड के लोकगीतों व गाथाओं के सरंक्षण में डा. हटवाल का अहम योगदान
नैनीताल। चमोली जिले के ग्राम तपोंण (जोशीमठ) में जन्मे नन्द किशोर हटवाल का उत्तराखण्ड के लोकगीतों व गाथाओं के सरंक्षण में अहम योगदान रहा है। डा. हटवाल ने ड्राइंग में डिप्लोमा के बाद एमए व पीएचडी की पढ़ाई की । प्रतिष्ठित पत्र—पत्रिकाओं में डा. हटवाल की कहानियां, कविताएं, लेख, फीचर , लघुकथाएं, नाटक, बाल कथायें आदि प्रकाशित होते रहे हैं। स्थानीय मुद्दों पर वह निरंतर लेखन कर रहे हैं अब तक वह सौ से अधिक रेखांकन प्रकाशित कर चुके हैं। डाॅ. हटवाल उत्तराखंड भाषा संस्थान द्वारा साहित्यिक सेवाओं के लिए सम्मानित होने के साथ अनेक छोटे-बड़े पुरस्कारों से पुरस्कृत हो चुके हैं।