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नैनीताल। लाइव उत्तरांचल न्यूज
हरिबोधनी एकादशी को भगवान सूर्य के उत्तरायण उत्तरगोल में आने की पूर्व सूचना कहा जा सकता है। साल के मार्गशीर्ष मास शुक्लपक्ष की एकादशी को होने वाला यह पर्व इस बार 25 नवंबर 10 गते को है। हरिबोधनी एकादशी का यह व्रत दो दिन का होता है। पहले दिन व्रत तथा द्वादशी को परायण संपन्न किये जाने का विधान है।

साल में 4 एकादशी का विशेष महत्वः एकादशी के व्रत को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। धर्म परायण लोग हर माह की एकादशी को व्रत करते हैं। लेकिन साल में चार एकादशी के व्रत अधिक महत्व रखते हैं। इनमें निर्जला एकादशी, हरिशयनी एकादशी, हरिबोधनी एकादशी व आंवला एकादशी श्रेष्ठ मानी गई है। मान्यता है कि हरिबोधनी एकादशी को भगवान विष्णु शेष सागर में शेष शैया को छोड़कर बैकुण्ठ धाम में प्रस्थान करते हैं। इसी समय प्रदोष काल चातुर्मास व्रतों का उद्यापन भी होता है। इस साल उद्यापन 27 नवंबर तथा 28 को बैकुण्ठ चतुर्दशी का पावन पर्व तथा 29 नवंबर को पूर्णिमा व्रत है। भगवान कृष्ण ने भी मासाना मार्गशीर्ष को अहम बताया है।

हरिबोधनी एकादशी का महत्वः- इस एकादशी को तुलसी पूजन किया जाता है। तुलसी वृक्ष जिसे हरिशयनी एकादशी को रोपित कर निरंतर पूजा की गई। इस दिन उसी तुलसी का विवाह संपन्न होने का दिन है। ध्यान रहे दिनांक 25 नवंबर को गृहस्थी स्मति लोगों द्वारा व्रत करने का विधान है। और दिनांक 26 नवंबर को सन्यासी सम्प्रदाय इस व्रत को करते हैं। तुलसी विष्णु भगवान का विवाह पर्व इसे कहेगें।

व्रत विधान:- एकादशी व्रत पुरुष, स्त्री सभी लोग करते हैं इस व्रत में भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी का पूजन होता है। यह व्रत पहले दिन फलाहार और दूसरे दिन अन्न ग्रहण का विधान है। तुलसी पूजन पर ही व्रत का उद्यापन होता है। विभिन्न वस्तुओं से तुलसी को सजाकर लाल वस्त्र ओढ़ने का विधान है। इस समय तुलसी को पिछौड़ा अथा लाल वस्त्र से सजावट करने का विधान है। स्त्रियों को स्वंय अपने श्रृगारिक वस्त्र एवं आभूषण पहन कर माता तुलसी की पूजा करनी चाहिए। जिससे भगवान विष्णु अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। उन घरों में लक्ष्मी, धन वैभव, समृद्धि की प्राप्ति होती है।
पुराणों में कथाः- एक बार भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र क्रोधित दुर्वासा मुनि का पीछा करने लगा जिस कारण मुनि ब्रहम लोक, शिवलोक एवं बैकुण्ठ धाम तक पहुंचे। परंतु भगवान विष्णु भी उनकी रक्षा नहीं कर सके और राजा अम्बरीष जोकि हमेशा एकादशी का व्रत करते थे के पास पहुंचने की आज्ञा दी। मुनि राजा के पास पहुंचे। तब दुर्वासा ऋषि का दु:ख दूर हुआ और राजा ने व्रत का परायण कर अन्न—जल ग्रहण किया। हबोधनी को व्रतानाम राजेंद्र कहा गया है।

तुलसी का पूजन की महिमाः- शास्त्रों में तुलसी पूजन की बड़ी महिमा है। तुलसी का पूजन अनेक कष्टों को दूर करता है तथा राजयक्ष्मा जसे रोग को नष्ट करता है। शौभाग्य संतति देवि, धनधान्य च मे सदा आरोग्यं शोक समनं कुरु माधव प्रिये । सदैव द्वादशी युक्त एकादशी को ही व्रत करना चाहिए। इसको लेकर भी एक कथा आती है। राजा वृषघ्वज की पुत्री तुलसी शंखचूड़ की पत्नी थी जो पतिव्रता धर्मपालन में माता अनुसूया से कम नहीं थी। पतिव्रता धर्म परायणा होने से शंखचूड़ को देवता भी युद्ध में नहीं मार सके। तीनों लोकों में शंखचूड़ का हाहाकार मचा था। ऐसे समय में देवताओं की प्रार्थना सुनकर आदिनारायण भगवान विष्णु ने धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए शंखचूड़ से उसका कवच मांगकर अपने को शेखचूड़ का वेष बनाते हुए और विजय पताका सिद्ध करते हुए तुलसी का पतिव्रता धर्म खण्डित किया और इसी समय देवताओं के सेनापति कार्तिकेय ने शंखचूड़ का वध किया। ऐसे समय पर तुलसी ने भगवान विष्णु को पत्थर होने का श्राप दिया। तब भगवान विष्णु ने तुलसी से क्षमा मांगी। और कहा :— हे प्रिये मैने स्वार्थ से नहीं धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए तुम्हारे शरीर का स्पर्श किया । मैं तुम्हारा दिया गया श्राप स्वीकार करता हूं। अत: मै अवश्य पत्थर बनूंगा लोग मुझे शालिग्राम कहकर मेरी पूजा करेंगे और तुम तुलसी वृक्ष बनोगी। लोग मुझे स्नान करा कर उस जल से तुम्हे स्नान करायेंगे। तुम सदैव मेरे साथ रहोगी। ऐसे समय पर भगवान विष्णु शालिग्राम बने और तुलसी वृक्ष बन गई। तथा शंखचूड़ की हड्डियों के चूरे से समुद्र में शंख की उत्पत्ति हुई। अत: मनुष्यों को घर में इस वर्तमान कलियुग में शालिग्राम की पूजा करनी चाहिए। तुलसी पूजन आवश्यक हे। घरों में शंख की पूजा होनी चाहिए। जिसे मानव संकट एवं रोगों से मुक्त होता है। हरिबोधन व्रत उद्यापन में शंखध्वनि के बाद पूजा का विधान है।
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